पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय के स्‍वप्‍नदृष्‍टा

       पं. माखनलाल चतुर्वेदी

‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से विख्यात पं. माखनलाल चतुर्वेदी प्रख्यात कवि, प्रखर पत्रकार, लेखक, वक्ता, सुधी चिंतक और स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी थे। 04 अप्रैल, 1889 को नर्मदापुरम (होशंगाबाद) (मप्र) के बाबई गांव में जन्में माखनलालजी ने जब पत्रकारिता शुरू की तो सारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव देखा जा रहा था।

राष्ट्रीयता एवं समाज सुधार की चर्चाएं और फिरंगियों को देश बदर करने की भावनाएं बलवती थीं। इसी के साथ महात्मा गांधी जैसी तेजस्वी विभूति के आगमन ने सारे आंदोलन को एक नई ऊर्जा से भर दिया। दादा माखनलाल जी भी उन्हीं गांधी भक्तों की टोली में शामिल हो गए। गांधी के जीवन दर्शन से अनुप्राणित दादा ने रचना और कर्म के स्तर पर जिस तेजी के साथ राष्ट्रीय आंदोलन को ऊर्जा एवं गति दी वह महत्व का विषय है।

इस दौर में राजनीतिक एवं सामाजिक पत्रकारिता के समानांतर साहित्यिक पत्रकारिता का एक दौर भी चल रहा था।हिन्‍दी काव्‍य क्षेत्र में एक भारतीय आत्‍मा के नाम से विख्‍यात सुप्रसिद्ध कवि,अभिनव गद्यकार, पौराणिक नाटककार, यथार्थवादी कहानीकार और निर्भीक एवं क्रांतिकारी पत्रकार पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने सन् 1904 से 1968 तक हिन्‍दी साहित्‍य की अनवरत साधना की।

पं. माखनलाल जी की प्रख्‍यात कविता वनमाली की पंक्तियां हमें देशप्रेम, निष्‍ठा, सजगता का संदेश देती है ।माखनलाल जी ने भी 1913 में ‘प्रभा’ नाम की एक उच्चकोटि की साहित्यिक पत्रिका के माध्यम से इस क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप किया। लोगों को झकझोरने एवं जगानेवाली रचनाओं के प्रकाशन के माध्यम से ‘प्रभा’ शीघ्र ही हिंदी जगत का एक जरूरी नाम बन गयी। दादा की 56 सालों की ओजपूर्ण पत्रकारिता की यात्रा में प्रताप, प्रभा व कर्मवीर उनके विभिन्न पड़ाव रहे।

आजादी के बाद 30 अप्रैल, 1968 तक वे जीवित रहे पर सत्ता का लोभ उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाया। इतना ही नहीं 1967 में भारतीय संसद द्वारा राजभाषा विधेयक पारित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रपति को वह पद्मभूषण का अलंकरण भी लौटा दिया जो उन्हें 1963 में दिया गया था।

‘कर्मवीर’ के संपादक कैसे संपादक थे, इसे बताने के लिए उन्होंने कहा कि – “हम फक्कड़ सपनों के स्वर्गों को लुटाने निकले हैं। किसी की फरमाइश पर जूते बनानेवाले चर्मकार नहीं हैं हम” यह निर्भीकता ही उनकी पत्रकारिता की भावभूमि का निर्माण करती थी।

स्वाधीनता आंदोलन की आँच को तेज करने में उनका ‘कर्मवीर’ अग्रणी बना। अपने लंबे पत्रकारीय जीवन के माध्यम से दादा ने नई पीढ़ी को रचना और संघर्ष का जो पाठ पढ़ाया वह आज भी हतप्रभ कर देने वाला है। इसके लिए दादा को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उनके संपादकीय कार्यालय यानी घर पर तिरसठबार छापे पड़े, तलाशियां हुयीं ।12 बार वे जेल गए।’कर्मवीर’ को अर्थाभाव में कई बार बंद होना पड़ा।

रतौना (सागर) में जब यंत्रीकृत कसाईखाना खोलने के लिए अंग्रेजों की कंपनी सेन्‍ट्रल प्राविन्‍सेज टेनिंग एंड ट्रेडिंग कंपनी को ठेका दिया गया, जिसमें रोज ढाई हजार गाय-बैल आदि काटे जाने थे, तब इसका विरोध करने के लिए माखनलालजी ने 17 जुलाई 1920 के ‘कर्मवीर’ में जो अग्रलेख लिखा, वह तथ्‍य, तर्क और भावना तीनों ही स्‍तर पर उत्‍कृष्‍ट संपादकीय लेखन का एक मानक है । इस अग्रलेख से समूचे मध्‍यप्रदेश में कसाई खाने के विरोध में एक वातावरण बना । परिणाम स्‍वरूप रतोना का कसाई खाना बंद हुआ।

पं. माखनलाल जी ने ही देश में एक पत्रकारिता विद्यापीठ स्थापित करने का स्वप्न देखा था। उन्होंने भरतपुर (राजस्थान) में 1927 में आयोजित संपादक सम्मेलन में कहा था-हिंदी समाचार पत्रों में कार्यालय में योग्य व्यक्तियों के प्रवेश कराने के लिए, एक पाठशाला आजकल के नए नामों की बाढ़ में से कोई शब्द चुनिए तो कहिए कि एक संपादन कला के विद्यापीठ की आवश्‍यकता है।

ऐसी विद्यापीठ किसी योग्य स्थान पर बुद्धिमान, परिश्रमी, अनुभवी, संपादक-शिक्षकों द्वारा संचालित होना चाहिए। उक्त पीठ में अन्यान्य विषयों का एक प्रकांड ग्रंथ संग्रहालय होना चाहिए।” यह संयोग ही है कि 1990 में मध्यप्रदेश सरकार ने उनके इस स्वप्न को साकार करते हुए उनके नाम पर ही भोपाल में पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना की।

30 जनवरी, 1968 को उनका निधन हो गया। यह संयोग ही है कि उनकी और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जो उनके आदर्श थे की पुण्यतिथि एक ही दिन है। राष्ट्रपिता ने इस महान पत्रकार के बारे में कहा-“हम सब लोग तो बात करते हैं, बोलना (भाषण) तो माखनलाल जी ही जानते हैं।” इतना ही नहीं बापू ने कहा- मैं बाबई जैसे छोटे स्थान पर इसलिए जा रहा हूं क्योंकि वह माखनलालजी का जन्मस्थान है। जिस भूमि ने माखनलालजी को जन्म दिया, उसी भूमि को मैं सम्मान देना चाहता हूं।”

पं. माखनलाल जी के बहुआयामी वयक्तित्‍व और कालजयी कृतित्‍तव के कारण वे उच्‍च शिखर पर प्रतिष्ठित हैं और हमेशा रहेंगे। पं. माखनलाल जी की प्रसिद्ध कविता:-